31 अगस्त 2019 असम से सम्बन्धित एनआरसी अपग्रेड की अन्तिम रिपोर्ट जिसमें कहा गया कि असम में लगभग 19 लाख लोग नागरिकता सूची मे नहीं आ सके हैं। इस रिपोर्ट से इन 19 लाख लोगों के अलावा समाज का हर वर्ग व पक्षकार क्षुब्ध और निराश हुआ है।
निराशा के कारण भले ही अलग- अलग हैं। संविधानविद की निराशा इस बात से है ये इस एनआरसी को 1955 के नागरिकता कानून का उल्लंघन समझते हैं, असम गण परिषद दु:खी है कि 19 लाख की यह संख्या उनकी हाय-तोबा मचाने के हिसाब से काफी कम है। अल्पसंख्यक समुदाय को निराशा इस बात को लेकर है कि जिसका डर था वही हुआ कागजात होने के बावजूद मुसलमानों की बड़ी संख्या एन आर सी से बाहर कर दी गई वहीं बीजेपी दु:खी है तमाम प्रयासों के बाद भी मुसलमानों की बड़ी संख्या एनआरसी में आ गई और हिन्दू ही सबसे बड़ी संख्या में इसके बाहर हो गए। अन्त में मानवीय मूल्यों में आस्था रखने वाले समस्त लोग पीढ़ियों से भारत में रहने वाले इन 19 लाख के भविष्य को लेकर आशंकित और चिन्तित हैं।
इस रिपोर्ट में भारी विसंगतिया भी हैं। एक ही परिवार के कुछ लोग एन आर सी में हैं तो कुछ बाहर। बाप है तो चाचा बाहर, बच्चे हैं तो बच्चे की माँ बाहर और भाई है तो बहन बाहर इसके अलावा ऐसे लोगों और उनकी संतानों को भी नागरिकता सूची से बाहर कर दिया है जो भारतीय सेना में हैं या रहे हैं और देश के लिए शहादत दी हैं। हास्यास्पद तो यह है कि एन आर सी बनाने वाले कुछ लोग भी इस सूची से बाहर हैं । ऐसा माना जा रहा 'विदेशी टिरब्यूनल' में अपील के बाद 19 लाख की यह संख्या घटकर 4 से 5 लाख रह जायेगी।
असल में एनआरसी अपग्रेड का यह प्रयास ही गलत था । यह इस मिथ्या अवधारणा पर विश्वास करने के कारण किया गया कि असम में भारी संख्या में बंगलादेश से घुसपैठ हुई है जो न केवल वहां के संसाधन पर बोझ हैं, बल्कि असमिया संस्कृति के लिए खतरा बन गए हैं, अत: इन्हें वापस भेजना चाहिए । इस झूठ को पहले असम के 'आसू 'और 'आगसप' नामक छात्र संगठनों ने हवा दी और 1979 में हिंसक आन्दोलन छेड़ दिया जिसका अंत 1985 में इन छात्र संगठन और भारत सरकार के बीच के'असम समझौते' से हुआ।
इसी समझौते में 1951 में बने "नेशनल रजिस्टर फार सिटीजनस"(एनआरसी) कानून को अपग्रेड करने की बात रखी गई। नाम में नेशनल था पर उस समय भी यह सिर्फ असम में किया गया क्यों कि पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) के साथ इसकी सीमा काफी झरझरी थी और लोग आसानी से इधर से ऊधर आ-जा रहे थे। इस कानून का आधार 1951 की जनगणना रिपोर्ट को बनाया गया और 26 जनवरी 1950 की तिथि नागरिकता की सीमा।असम समझौते में 25 मार्च 1971 की तिथि को नागरिकता की सीमा मानते हुए 'एनआरसी' को अपग्रेड करना तय हुआ।
छात्र संगठनों ने इस आन्दोलन के बल पर 'असम गण परिषद्' के रुप में सरकार तो बना ली पर अपग्रेड की अपनी ही मांग को पूरा करने का कोई प्रयास नहीं किया। कांग्रेस की सरकारें भी इसे टालती रही वैसे 2010 में छोटी कोशिश कामरूप और बारपेटा जिले में की भी गई पर भारी विरोध के कारण उसे रोक दिया। अब बारी बीजेपी की थी इसने इसे लपक लिया और और इसे साम्प्रदायिक रंग दे दिया। इनके लिए घुसपैठ का मतलब मुस्लिम घुसपैठ से था। एनआरसी की मांग जोर पकड़ने के साथ इनकी राजनीति भी चमक गई और अगप की तरह 2014 में असम में बीजेपी सत्ता में भी आ गई। स्पष्ट है कि राजनीति पार्टियों का लक्ष्य सत्ता पाना भर था और एन आर सी में उनकी दिलचस्पी इतनी भर ही थी न कि उसे वास्तविक रूप से अपग्रेड कराने में।
गड़बड़ तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट भी इस मिथ्या अवधारणा के चक्कर में आ गया। कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता इन्द्रजीत गुप्ता और कांग्रेस के गृहराज्यमंत्री प्रकाश जायसवाल के एक से डेढ़ करोड़ अवैध घुसपैठिये होने के बयानों ने और असम के राज्यपाल जनरल एस के सिन्हा के राष्ट्रपति की भेजी घुसपैठ से सम्बन्धित भ्रामक रिपोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को भी विश्वास दिला दिया कि सचमुच भारी मात्रा में घुसपैठ हुई है तभी तो 2005 'सरबनन्दा सोनोवाल बनाम भारत सरकार मुकदमें' में अवैध आप्रवासी से सम्बन्धित 1983 'आईएमडीटी एक्ट' को यह कह कर रद्द कर दिया यह अवैध आप्रवासी को बाहर करने में बाधक है साथ हीअवैध आप्रवासी की तुलना बाह्य आक्रमण से की।इसी दुश्चिंता में सुप्रीम कोर्ट ने खुद आगे बढ़ कर 2013 में एनआरसी अपग्रेड अपनी निगरानी में कराने का फैसला किया उसी की अन्तिम रिपोर्ट 31 अगस्त 2019 आई है।
कानूनविद एनआरसी में 25 मार्च 1971 की तिथि को जन्म के आधार पर नागरिकता देने को 1955 भारतीय नागरिकता कानून जिसमें यह तिथि 1जुलाई 1987 तय की गई है, के विरुद्ध मानते हैं और यह आशंका जाहिर की संविधानपीठ कहीं इस आधार पर एनआरसी को ही न रद्द कर दे। सही है सुप्रीम कोर्ट इस मामले व्यर्थ में उलझ गया है क्योंकि जिस मामले को सुप्रीम कोर्ट अपनी निगरानी में कराये उसकी रिपोर्ट में इतनी विसंगतिया हो वह सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा के लिए उचित नहीं है।
अब सवाल है कि इन 19 लाख लोगों का क्या होगा? पहले तो इन्हें उन 'विदेशी टिरब्यूनल' के पास अपील कर अपनी नागरिकता साबित करने 120 दिनों का मौका दिया गया है, जिनकी खुद की योग्यता और विश्वसनीयता पर प्रश्न लगे हैं।यहाँ से भी निराश लोगों को हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में में जाने का विकल्प तो होगा पर वहां गरीबी के कारण शायद ही जा पायें । फिर या तो उन्हें बंगलादेश भेजा जायेगा या फिर 'हिरासत केन्द्र' में अमानवीय हालात में रखा जायेगा। बंगलादेश लेने को तैयार नहीं है तो विकल्प तो हिरासत केन्द्र ही बचता है। अभी 6 हिरासत केन्द्र कार्यरत हैं जिसमें 1335 अवैध आप्रवासी हैं और 10 और बन रहे हैं जिनमें 4-5 हजार और रह पायेंगे पर यहां तो कम से कम 5 लाख की व्यवस्था करनी है ?
हजारों करोड़ पहले ही एनआरसी कराने में खर्च हो चुके हैं अब लाखों करोड़ हिरासत केन्द्र बनाने में! देश के संसाधन पर अब बोझ पड़ेगा या पहले? उल्लेखनीय है सुप्रीम कोर्ट पहले ही ३ साल से अधिक समय हिरासत केन्द्र में काट चुके लोगों को रिहा करने का आदेश दे चुका है। ऐसे में ये राज्यविहीन और अधिकारहीन लोग समाज के लिए अलग ही समस्या बन सकते हैं। यह समाधान नहीं हो सकता। अतएव एनआरसी ने समस्या का समाधान की बजाय मूल समस्या से भी बड़ी समस्या खड़ी की है इसलिए इसका पूरा तामझाम व्यर्थ हुआ और इससे असम के लोगों को पीड़ित करने और देश के धन की हानि के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ।
दरअसल , एनआरसी से बाहर हुए लोग भी भारतीय ही हैं क्योंकि जन्म के आधार पर नागरिकता को प्रायः विश्व मानता है।इनकी तो 1971 से तीन पीढ़ियों का जन्म भारत में हो चुका है । यह हो सकता है इनमें से कुछ के पास 50 साल पुराने कागजात न हों या फिर कुछ के पूवर्ज बंगलादेश से आए हों लेकिन इस बात को लगभग 50 साल हो गए और जब 7 साल भारत में रहने वाले को भारत की नागरिकता मिल सकती है तो इन्हें क्यों नहीं?
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट से आशा की जाती है कि अरूणाचल प्रदेश में आए बंगलादेश चकमा शरणार्थी के संबंध 1996 के मानवता और दीर्घकालीन निवास के आधार पर अपने फैसले की तरह असम के इन राज्य विहीन लोगों को भी 'पंजीकरण विधि' से भारत का नागरिकता प्रदान करने का आदेश दे। साथ ही अवैध आप्रवासी की पहचान के लिए 1983 की आईएमडीटी एक्ट का सुधरा संस्करण लाने के लिए सरकार को प्रेरित करे। अस्तु एन आर सी अपग्रेड के प्रयास को हमेशा के लिए तिलांजलि देने में ही सबकी भलाई है।
अन्त में
याद आई, एनआरसी की बात तो
उस बात की तौबा।
निराशा के कारण भले ही अलग- अलग हैं। संविधानविद की निराशा इस बात से है ये इस एनआरसी को 1955 के नागरिकता कानून का उल्लंघन समझते हैं, असम गण परिषद दु:खी है कि 19 लाख की यह संख्या उनकी हाय-तोबा मचाने के हिसाब से काफी कम है। अल्पसंख्यक समुदाय को निराशा इस बात को लेकर है कि जिसका डर था वही हुआ कागजात होने के बावजूद मुसलमानों की बड़ी संख्या एन आर सी से बाहर कर दी गई वहीं बीजेपी दु:खी है तमाम प्रयासों के बाद भी मुसलमानों की बड़ी संख्या एनआरसी में आ गई और हिन्दू ही सबसे बड़ी संख्या में इसके बाहर हो गए। अन्त में मानवीय मूल्यों में आस्था रखने वाले समस्त लोग पीढ़ियों से भारत में रहने वाले इन 19 लाख के भविष्य को लेकर आशंकित और चिन्तित हैं।
इस रिपोर्ट में भारी विसंगतिया भी हैं। एक ही परिवार के कुछ लोग एन आर सी में हैं तो कुछ बाहर। बाप है तो चाचा बाहर, बच्चे हैं तो बच्चे की माँ बाहर और भाई है तो बहन बाहर इसके अलावा ऐसे लोगों और उनकी संतानों को भी नागरिकता सूची से बाहर कर दिया है जो भारतीय सेना में हैं या रहे हैं और देश के लिए शहादत दी हैं। हास्यास्पद तो यह है कि एन आर सी बनाने वाले कुछ लोग भी इस सूची से बाहर हैं । ऐसा माना जा रहा 'विदेशी टिरब्यूनल' में अपील के बाद 19 लाख की यह संख्या घटकर 4 से 5 लाख रह जायेगी।
असल में एनआरसी अपग्रेड का यह प्रयास ही गलत था । यह इस मिथ्या अवधारणा पर विश्वास करने के कारण किया गया कि असम में भारी संख्या में बंगलादेश से घुसपैठ हुई है जो न केवल वहां के संसाधन पर बोझ हैं, बल्कि असमिया संस्कृति के लिए खतरा बन गए हैं, अत: इन्हें वापस भेजना चाहिए । इस झूठ को पहले असम के 'आसू 'और 'आगसप' नामक छात्र संगठनों ने हवा दी और 1979 में हिंसक आन्दोलन छेड़ दिया जिसका अंत 1985 में इन छात्र संगठन और भारत सरकार के बीच के'असम समझौते' से हुआ।
इसी समझौते में 1951 में बने "नेशनल रजिस्टर फार सिटीजनस"(एनआरसी) कानून को अपग्रेड करने की बात रखी गई। नाम में नेशनल था पर उस समय भी यह सिर्फ असम में किया गया क्यों कि पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) के साथ इसकी सीमा काफी झरझरी थी और लोग आसानी से इधर से ऊधर आ-जा रहे थे। इस कानून का आधार 1951 की जनगणना रिपोर्ट को बनाया गया और 26 जनवरी 1950 की तिथि नागरिकता की सीमा।असम समझौते में 25 मार्च 1971 की तिथि को नागरिकता की सीमा मानते हुए 'एनआरसी' को अपग्रेड करना तय हुआ।
छात्र संगठनों ने इस आन्दोलन के बल पर 'असम गण परिषद्' के रुप में सरकार तो बना ली पर अपग्रेड की अपनी ही मांग को पूरा करने का कोई प्रयास नहीं किया। कांग्रेस की सरकारें भी इसे टालती रही वैसे 2010 में छोटी कोशिश कामरूप और बारपेटा जिले में की भी गई पर भारी विरोध के कारण उसे रोक दिया। अब बारी बीजेपी की थी इसने इसे लपक लिया और और इसे साम्प्रदायिक रंग दे दिया। इनके लिए घुसपैठ का मतलब मुस्लिम घुसपैठ से था। एनआरसी की मांग जोर पकड़ने के साथ इनकी राजनीति भी चमक गई और अगप की तरह 2014 में असम में बीजेपी सत्ता में भी आ गई। स्पष्ट है कि राजनीति पार्टियों का लक्ष्य सत्ता पाना भर था और एन आर सी में उनकी दिलचस्पी इतनी भर ही थी न कि उसे वास्तविक रूप से अपग्रेड कराने में।
गड़बड़ तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट भी इस मिथ्या अवधारणा के चक्कर में आ गया। कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता इन्द्रजीत गुप्ता और कांग्रेस के गृहराज्यमंत्री प्रकाश जायसवाल के एक से डेढ़ करोड़ अवैध घुसपैठिये होने के बयानों ने और असम के राज्यपाल जनरल एस के सिन्हा के राष्ट्रपति की भेजी घुसपैठ से सम्बन्धित भ्रामक रिपोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को भी विश्वास दिला दिया कि सचमुच भारी मात्रा में घुसपैठ हुई है तभी तो 2005 'सरबनन्दा सोनोवाल बनाम भारत सरकार मुकदमें' में अवैध आप्रवासी से सम्बन्धित 1983 'आईएमडीटी एक्ट' को यह कह कर रद्द कर दिया यह अवैध आप्रवासी को बाहर करने में बाधक है साथ हीअवैध आप्रवासी की तुलना बाह्य आक्रमण से की।इसी दुश्चिंता में सुप्रीम कोर्ट ने खुद आगे बढ़ कर 2013 में एनआरसी अपग्रेड अपनी निगरानी में कराने का फैसला किया उसी की अन्तिम रिपोर्ट 31 अगस्त 2019 आई है।
कानूनविद एनआरसी में 25 मार्च 1971 की तिथि को जन्म के आधार पर नागरिकता देने को 1955 भारतीय नागरिकता कानून जिसमें यह तिथि 1जुलाई 1987 तय की गई है, के विरुद्ध मानते हैं और यह आशंका जाहिर की संविधानपीठ कहीं इस आधार पर एनआरसी को ही न रद्द कर दे। सही है सुप्रीम कोर्ट इस मामले व्यर्थ में उलझ गया है क्योंकि जिस मामले को सुप्रीम कोर्ट अपनी निगरानी में कराये उसकी रिपोर्ट में इतनी विसंगतिया हो वह सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा के लिए उचित नहीं है।
अब सवाल है कि इन 19 लाख लोगों का क्या होगा? पहले तो इन्हें उन 'विदेशी टिरब्यूनल' के पास अपील कर अपनी नागरिकता साबित करने 120 दिनों का मौका दिया गया है, जिनकी खुद की योग्यता और विश्वसनीयता पर प्रश्न लगे हैं।यहाँ से भी निराश लोगों को हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में में जाने का विकल्प तो होगा पर वहां गरीबी के कारण शायद ही जा पायें । फिर या तो उन्हें बंगलादेश भेजा जायेगा या फिर 'हिरासत केन्द्र' में अमानवीय हालात में रखा जायेगा। बंगलादेश लेने को तैयार नहीं है तो विकल्प तो हिरासत केन्द्र ही बचता है। अभी 6 हिरासत केन्द्र कार्यरत हैं जिसमें 1335 अवैध आप्रवासी हैं और 10 और बन रहे हैं जिनमें 4-5 हजार और रह पायेंगे पर यहां तो कम से कम 5 लाख की व्यवस्था करनी है ?
हजारों करोड़ पहले ही एनआरसी कराने में खर्च हो चुके हैं अब लाखों करोड़ हिरासत केन्द्र बनाने में! देश के संसाधन पर अब बोझ पड़ेगा या पहले? उल्लेखनीय है सुप्रीम कोर्ट पहले ही ३ साल से अधिक समय हिरासत केन्द्र में काट चुके लोगों को रिहा करने का आदेश दे चुका है। ऐसे में ये राज्यविहीन और अधिकारहीन लोग समाज के लिए अलग ही समस्या बन सकते हैं। यह समाधान नहीं हो सकता। अतएव एनआरसी ने समस्या का समाधान की बजाय मूल समस्या से भी बड़ी समस्या खड़ी की है इसलिए इसका पूरा तामझाम व्यर्थ हुआ और इससे असम के लोगों को पीड़ित करने और देश के धन की हानि के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ।
दरअसल , एनआरसी से बाहर हुए लोग भी भारतीय ही हैं क्योंकि जन्म के आधार पर नागरिकता को प्रायः विश्व मानता है।इनकी तो 1971 से तीन पीढ़ियों का जन्म भारत में हो चुका है । यह हो सकता है इनमें से कुछ के पास 50 साल पुराने कागजात न हों या फिर कुछ के पूवर्ज बंगलादेश से आए हों लेकिन इस बात को लगभग 50 साल हो गए और जब 7 साल भारत में रहने वाले को भारत की नागरिकता मिल सकती है तो इन्हें क्यों नहीं?
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट से आशा की जाती है कि अरूणाचल प्रदेश में आए बंगलादेश चकमा शरणार्थी के संबंध 1996 के मानवता और दीर्घकालीन निवास के आधार पर अपने फैसले की तरह असम के इन राज्य विहीन लोगों को भी 'पंजीकरण विधि' से भारत का नागरिकता प्रदान करने का आदेश दे। साथ ही अवैध आप्रवासी की पहचान के लिए 1983 की आईएमडीटी एक्ट का सुधरा संस्करण लाने के लिए सरकार को प्रेरित करे। अस्तु एन आर सी अपग्रेड के प्रयास को हमेशा के लिए तिलांजलि देने में ही सबकी भलाई है।
अन्त में
याद आई, एनआरसी की बात तो
उस बात की तौबा।
Excellent
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