Stain on independent judiciary! स्वतंत्र न्यायपालिका पर दाग!


Stain on independent judiciary!
सुप्रीम कोर्ट में सरकार द्वारा जानकारी देने की "सील्ड कवर" की एक अपारदर्शी परम्परा की शुरुआत करने वाले भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगई ने सेवानिवृत्ति के महज 4 महीनों के भीतर राज्यसभा की सदस्यता के मनोनयन को स्वीकार कर स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा को ही कहीं ना कहीं (अनसील्ड)  बेपर्दा करने की कोशिश की है!
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ऐसा करने में 2018 में ट्रीब्यूनल को लेकर कही अपनी ही बात का ध्यान न रखा कि सेवानिवृत्ति के पश्चात् जजों की नियुक्ति  स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा पर एक दाग है। इतना ही नहीं राज्य सभा की सदस्यता लेने के बाद उनका यह कहना कि विधायिका और न्यायपालिका को "राष्ट्र निर्माण के लिए एक साथ काम करना चाहिए "खतरनाक रुप से आश्चर्यजनक है"। क्योंकि खुद श्री गोगई ने जस्टिस रहते हुए 12 जुलाई 2018 को तृतीय रामनाथ गोईनका मेमोरियल लेक्चर  में अमेरिकी कानूनविद हैमिल्टन को उद्धृत करते हुए कहा था कि जनता की स्वतंत्रता को खतरा अकेले न्यायपालिका से नहीं  होता बल्कि तब होता है जब वो सरकार के अन्य दो अंगो में से किसी एक से भी  सांठगांठ कर लेता है।आश्चर्य है कि सुप्रीम कोर्ट के  किसी सहकर्मी  को अन्दाज नहीं लग पाया कि "एक बहुमुखी प्रतिभा  जो विश्व स्तर पर सोचता हैं और स्थानीय रूप से कार्य करता है" खुद उनके बीच भी है!

न्यायाधीशों द्वारा सेवानिवृत्ति के पश्चात पदग्रहण के पहले भी कई उदाहरण रहे हैं और कानून में मनाही भी नहीं है। लेकिन ऐसा जब भी हुआ है न्यायपालिका की स्वतंत्रता और संवैधानिक मर्यादा के सवाल उठ खड़े हुए हैं और आलोचनायें हुई है। इस संबंध में उल्लेखनीय है जब 1950  में जस्टिस फजल अली ने ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य के मुकदमे 4-1 के फैसले में सरकार के खिलाफ असहमति की टिप्पणी दी थी बावजूद इसके स्व: जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें उड़ीसा  का गवर्नर बना दिया । "बदले में "( quid pro quo) का कोई मामला नहीं था फिर भी आलोचना हुई थी। तत्कालीन एटर्नी जनरल एम सी शीतलवाड सहित आलोचकों का मानना था जजों का सेवानिवृत्ति के पश्चात राजनैतिक पद देना-लेना संवैधानिक गरिमा के भी खिलाफ है।

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न्यायपालिका और बदले में ( quid pro quo) 
लेकिन इसके बाद भी जजों द्वारा सेवानिवृत्ति के पश्चात नये पद लेने की परम्परा जारी रही पर फर्क ये पड़ा कि इन नियुक्तियों को लेकर "बदले में" (quid pro quo) के आरोप भी लगने शुरू हो गए जिसे न केवल संवैधानिक मर्यादा  बल्कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आघात माना जाता है। जांच कमीशन और ट्रिब्यूनल में तो उदाहरण भरे पड़े हैं अन्य  उदाहरणों में सबसे पहला तब हुआ जब कांग्रेस पार्टी के दो बार राज्यसभा सांसद रह चुकने के बाद 1980 में सुप्रीमकोर्ट के बहरुल इस्लाम जज बने फिर1983 में इस्तीफा दे राज्यसभा सांसद बने तो आरोप लगे उन्हें कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त करने का ईनाम मिला।


  1998 में जब 1991 में ही रिटायर्ड हो चुके जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा सांसद बनाया तो कहा गया दिल्ली सिख दंगों पर दी गई रिपोर्ट का पुरस्कार मिला। 2014 में बीजेपी सरकार बनी तो मुख्य न्यायाधीश पी सथाशिवम को सेवानिवृत्ति के फौरन बाद केरल का गवर्नर बना दिया वह भी तब जब राज्यसभा में विपक्ष के नेता की हैसियत से बीजेपी के स्व: अरुण जेटली पहले ही कह चुके थे कि" जजों के सेवानिवृत्ति के पहले के फैसले सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी की इच्छा से प्रभावित होते हैं।" यहाँ भी शक किया गया और तुलसी प्रजापति मामले में श्री अमित शाह को राहत देने को इसका कारण बतलाया गया।
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पूर्व के उदाहरणों में जजों के एक फैसले को लेकर "बदले में"( quid pro quo)  के आरोप लगे। ऐसे में जस्टिस रंजन गोगई के मामले को देखें, यहां तो फैसलों की पूरी श्रृंखला ही है। सीबीआई डायरेक्टर , राफेल , इलेक्शन बाण्ड, जम्मू कश्मीर के बन्दी     प्रत्यक्षीकरण, असम एनआरसी और अयोध्या इन सबसे सम्बन्धित सभी विवादों के निर्णय केन्द्र सरकार के पक्ष में गए। न तो ऐसा है कि सभी निर्णय अकेले जस्टिस गोगई ने किये थे, और सभी गलत ही थे। ऐसा भी नहीं है सुप्रीमकोर्ट का मतलब एक जज होता है। पर न्याय का सिद्धान्त कहता है न्याय न केवल हो बल्कि दिखना भी चाहिए और जब इतने सारे उदाहरण हो और निर्णय देने वाला राज्यसभा की सदस्यता का सरकारी आफर स्वीकार कर ले तो "बदले में" (Quid pro quo) का शक तो पैदा होता ही है।


 जस्टिस गोगई के साथ के वर्तमान जज, राज्य सभा में गोगई के जाने को लेकर अपनी भावना संवैधानिक मर्यादा के चलते व्यक्त नहीं कर सकते पर जो सेवानिवृत्त हो चुके हैं वे न केवल आहत महसूस कर रहे हैं बल्कि इसे व्यक्त भी कर रहे हैं। पूर्व जस्टिस लोकुर ने आश्चर्य से कहा  लगता है "अंतिम गढ़"भी गिर गया , यह निर्णय न्यायपालिका की "स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता" को अलग ही परिभाषित करता है। जबकि पूर्व जस्टिस कुरियन जोसेफ का मानना है कि जस्टिस रंजन गोगोई द्वारा राज्यसभा के नामांकन की स्वीकृति ने निश्चित रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता में आम आदमी के विश्वास को हिला दिया है, जो कि भारत के संविधान की बुनियादी संरचनाओं में से एक है।
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जस्टिस गोगई ने खुद पर "बदले में "( Quid pro quo)का आरोप लगाने वालों पर सुप्रीमकोर्ट से स्वत: संज्ञान ले "न्यायालय के अपमान" का मुकदमा चलाने की बात कही है। वास्तव में सुप्रीमकोर्ट को स्वत: संज्ञान लेकर उन 6 व्यक्तियों की लाबी के बारे में पता करना चाहिए जिनकी चर्चा जस्टिस रंजन गोगई ने की है और कहा है कि वे सुप्रीमकोर्ट  पर हावी हैं। क्योंकि जैसा कि स्व: जेटली ने कहा था कि स्वतंत्र न्यायपालिका लोकतंत्र की जीवन रेखा है, और अगर लोग इस पर विश्वास खो देते हैं, तो वे लोकतंत्र में विश्वास खो देते हैं। 

Parimal

Most non -offendable sarcastic human alive! Post Graduate in Political Science. Stay tuned for Unbiased Articles on Indian Politics.

5 टिप्पणियाँ

  1. Judiciary pe bilkuldaagdar hai kyonkibharat me justice wahi hai Jo Congress kahe.congress ke man mafik kaam nhi Karne wali har sanstha aaj sarkar ki gulam hai.chahe wo judiciary ho election commission ho cbi ho chahe aur koi bhi ho. Modi ne sabhi sansthao ko kharid liya hai sir aisa kahne walo ko chhor kar

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  2. आपने जो कुछ कहा वो आपके विचार हैं इस लेख में कहीं उल्लेख नहीं है!

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